मन की मृत्यु और कर्म से मुक्ति का रहस्य

मन की इच्छा और प्रभु की इच्छा का अंतर

गुरुजी के उपदेश में एक गहरी सच्चाई छिपी है — जब तक मन अपनी इच्छा से चलता है, तब तक जीव कर्म का फल भोगने को बाध्य होता है। लेकिन जब मन और अहंकार भगवान को समर्पित हो जाते हैं, तभी जीवन मुक्त हो सकता है। यह मुक्त अवस्था तब आती है जब व्यक्ति अपने हर कार्य का कर्ता-भाव छोड़ देता है।

कथा: कर्म और समर्पण की शिक्षा

एक बार एक साधक ने गुरुजी से पूछा, “यदि सब कुछ भगवान की इच्छा से होता है, तो फिर हमें क्यों फल भुगतना पड़ता है?” गुरुजी मुस्कुराए और एक कथा सुनाई —

“एक माली रोज मंदिर में फूल चढ़ाता था। एक दिन यह विचार आया कि जब सब प्रभु की इच्छा से होता है, तो फूल चढ़ाना या न चढ़ाना, दोनों उसकी इच्छा ही होंगे। वह बंद कर बैठ गया। कुछ दिन बीतने पर मन में भारीपन आया, मंदिर जाने की इच्छा कम होने लगी। तब गुरु ने समझाया — ‘बेटा, भगवान की इच्छा में चलना ऐसा नहीं कि कुछ करना छोड़ देना; बल्कि अपनी इच्छा का त्याग कर उनके आदेश में कार्य करना ही सच्चा समर्पण है।’ माली ने फिर सेवा में लगन दिखाई और भीतर से गहराई से शांति का अनुभव किया।”

मोरल इनसाइट

समर्पण का अर्थ निष्क्रियता नहीं, बल्कि अपनी इच्छा और अहंकार को प्रभु की इच्छा में विलीन कर देना है। जब व्यक्ति कर्म करता है, पर कर्ता-भाव छोड़ देता है, तब वही कर्म मोक्ष का साधन बनता है।

तीन व्यावहारिक अनुप्रयोग

  • प्रत्येक काम से पहले मन ही मन कहें — “प्रभु, यह कार्य आपकी प्रेरणा से हो रहा है।” इससे कर्ता-भाव घटेगा।
  • फल की चिंता छोड़ दें; केवल कर्म में शुद्धता बनाए रखें।
  • अहंकार आने पर तुरंत अपने गुरु या ईश्वर को स्मरण करें — यह क्षणिक चिंगारी मन की मृत्यु की शुरुआत बन सकती है।

एक कोमल चिंतन प्रश्न

आज स्वयं से पूछें — मेरे कितने कर्म वास्तव में भगवान के नाम से होते हैं, और कितने मेरे व्यक्तिगत अहंकार से? यह प्रश्न मन को भीतर झांकने का अवसर देगा।

कर्म, पाप और पुण्य का बोध

गुरुजी कहते हैं कि संसार में दो विभाग हैं — पाप कर्म और पुण्य कर्म। पहले पुण्य कर्म करके पाप कर्मों का त्याग करें। फिर पुण्य कर्म में भी कर्ता-भाव का त्याग करें। यही कर्मयोग है। जब यह अवस्था आती है, तो न पाप का बंधन रहता है, न पुण्य का मोह — केवल प्रभु की शरण में विशुद्ध आनंद रह जाता है।

जीवन मुक्त की पहचान

जीवन मुक्त व्यक्ति बाहरी रूप से साधारण कार्य करता है, पर भीतर पूर्ण समर्पित रहता है। उसे कोई दोष नहीं लगता क्योंकि उसका मन अब व्यक्तिगत नहीं रहा — वह दिव्यता में विलीन है।

समर्पण की साधना के सरल उपाय

  • प्रतिदिन कुछ क्षण मौन बैठकर ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करें।
  • भगवान का नाम जप करें — नाम में शक्ति छिपी है जो मन को शांत करती है।
  • कर्म करते हुए दूसरों की मदद करें; सेवा मन की चाह को भंग करती है।

आंतरिक मुक्ति का अनुभव

जब व्यक्ति समझ लेता है कि हर घटना ईश्वर की सत्ता से चल रही है, तब शिकायत मिट जाती है। रोग हो या आनंद — सबमें उसी की रचना दिखने लगती है। तब मन की मृत्यु का आरंभ होता है; वही सच्ची स्वतंत्रता है।

प्रेरणा और मार्गदर्शन

जो साधक अपने जीवन में यह दृष्टि लाना चाहते हैं, वे spiritual guidance के माध्यम से अनुभवी संतों की वाणी सुन सकते हैं। वहां से मिलने वाली सरल शिक्षा मन को स्थिरता देती है और भक्ति की लौ जगाती है।

FAQs

1. क्या भगवान की इच्छा से सब कुछ होता है?

हाँ, परंतु मन की इच्छा जब तक जीवित है, तब तक व्यक्तिगत कर्म की जिम्मेदारी भी बनी रहती है।

2. क्या समर्पण के बाद मनुष्य निष्क्रिय हो जाता है?

नहीं, वह सक्रिय रहता है पर कर्म में कर्ता-भाव छोड़ देता है, यही सच्चा योग है।

3. क्या पुण्य कर्म से मोक्ष मिल सकता है?

पुण्य कर्म पाप कर्मों का त्याग कराते हैं, पर मोक्ष तब मिलता है जब पुण्य में भी कर्ता-भाव समाप्त हो जाए।

4. मन को मरने का अर्थ क्या है?

मन के विचार, इच्छाएँ और अहंकार जब ईश्वर की इच्छा में समर्पित हो जाते हैं, तो मन मर जाता है — यही आत्मज्ञान का द्वार है।

5. व्यस्त जीवन में यह साधना कैसे संभव है?

हर सांस में स्मरण करें — “सब उसकी इच्छा है।” यह छोटी सी भावना दिनभर आपको ईश्वर से जोड़े रख सकती है।

आत्मिक संदेश

कर्म से मुक्त वही होता है जो मन से मुक्त हो गया। समर्पण का मार्ग कठिन नहीं है; बस इच्छा छोड़नी है और प्रेम से कर्म करना है। बांधने वाले कर्म नहीं, बांधने वाला “मैं” है। जब “मैं” मिट जाता है, तब वही कार्य उपासना बन जाता है।

जितना तुम प्रभु की इच्छा में चलोगे, उतनी शांति गहराई से उतरेगी। यही गुरुजी की वाणी का सार है — मन मरे, प्रभु जगे। भोग का अंत और आनंद का आरंभ वहीं है जहाँ अहंकार का विसर्जन होता है।

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Originally published on: 2025-01-15T10:08:58Z

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