भरतरी जी की वैराग्य कथा से जीवन का आलोक
भरतरी जी की कथा: वैभव से वैराग्य की यात्रा
कभी-कभी जीवन हमें ऐसा अनुभव देता है जो भीतर तक हिला देता है। राजा भरतरी चक्रवर्ती सम्राट थे—धन, शक्ति और सौंदर्य सब उनके चरणों में था। परंतु उसी वैभव के मध्य उन्होंने ऐसा अनुभव किया जिसने उन्हें संसार से वैराग्य की दिशा में मोड़ दिया।
कथा का सार
भरतरी जी के दरबार में एक ब्राह्मण ने तपस्या द्वारा प्राप्त एक ‘अमर फल’ लाकर भेंट किया। महाराज ने सोचा कि यह फल अपनी प्रिय रानी पिंगला को दे देना उचित होगा, ताकि जब तक वह जीवित हैं, पत्नी का साथ बना रहे। प्रेमवश उन्होंने वह फल रानी को दे दिया।
रानी ने वह अमर फल अपने अस्तबल में कार्यरत एक अश्वपाल को दे दिया, जिससे उसका गुप्त आकर्षण था। अश्वपाल ने अपनी प्रेयसी, एक नर्तकी को वह फल सौंप दिया—यह सोचकर कि वह अमर रहेगी तो उनके प्रेम का नाश नहीं होगा। अंततः जब भरतरी जी के दरबार में वह अमर फल उस नर्तकी के हाथ में मिला, तब पूरा प्रसंग खुल गया।
भरतरी जी स्तब्ध रह गए। उन्होंने कहा—“जिस संसार को मैंने सत्य माना, वही माया का जाल निकला।” उन्होंने राज्य, सिंहासन, रानी सब त्याग दिया और लंगोटी धारण कर वैराग्य मार्ग पर चल पड़े। बाद में उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध “भरतरी शतक” उत्पन्न हुआ, जिसने असंख्य साधकों को वैराग्य का बोध कराया।
कथा का मर्म
भरतरी जी की कथा बताती है कि भोगों का आकर्षण क्षणिक होता है। माया की परछाई चमकदार होती है, परंतु उस चमक में सत्य नहीं मिलता। अंततः वही व्यक्ति सच्चा ज्ञानी है जो ‘अनित्य’ वस्तु को ‘नित्य’ नहीं मानता।
मोरल इनसाइट
सुख और भोग कभी स्थायी नहीं होते। सच्चा सुख तभी मिलता है जब हम अपनी दृष्टि को भीतर मोड़ते हैं—अपने आत्मस्वरूप की ओर।
- भोग की इच्छा जितनी बढ़ती है, वैसी ही अशांति बढ़ती है।
- त्याग ही वास्तविक संपदा है, जो मन की स्वतंत्रता देती है।
- संसार में कुछ भी स्थायी नहीं—यह समझने वाला मनुष्य दुख से मुक्त होता है।
दैनिक जीवन में अनुप्रयोग
- संयम का अभ्यास: हर इच्छा के साथ मत बहो। ठहरो, सोचो, फिर कदम बढ़ाओ।
- कृतज्ञता का भाव: जो मिला है, उसी में आनंद देखो। और अधिक की लालसा दुख को जन्म देती है।
- सत्संग का साथ: हर दिन कुछ पल भजन या सत्संग सुनने में दो, जिससे विवेक निर्मल हो।
मनन के लिए प्रश्न
आज मैं किस वस्तु या व्यक्ति से सुख की अपेक्षा कर रहा हूं, जो क्षणिक है? क्या मैं उसे भगवान की भांति स्थायी मान रहा हूं?
आध्यात्मिक निष्कर्ष
महर्षि कहते हैं—“त्याग से शांति मिलती है।” भरतरी जी की तरह जब हम अपने भीतर के राग-द्वेष को पहचानकर भगवान की ओर मुड़ते हैं, तब मन निर्मल होता है। जहां भगवान हैं, वहां न तो पछतावा है और न ही भय।
भजन और साधना का बल
यदि आप कभी निराशा में हों, तो नामजप का सहारा लें। राधा-कृष्ण, राम या हरि—जो नाम हृदय को प्रिय लगे, उसी में लीन हो जाइए। संकीर्तन की ध्वनि भीतर के अंधकार को मिटाती है। ऐसे ही सुंदर भजनों के माध्यम से आत्मा को आलोकित करें और शांति का अनुभव करें।
FAQs
1. क्या भोगों का त्याग ही वैराग्य है?
नहीं, वैराग्य का अर्थ त्याग नहीं, बल्कि आसक्ति का अंत है। जो भीतर से स्वतंत्र हो गया, वही वैरागी है।
2. नामजप कैसे किया जाए?
प्रेम से, सजगता के साथ और नियमपूर्वक। हर परिस्थिति में भगवान का स्मरण करते रहें।
3. पापों से मुक्ति कैसे संभव है?
ईमानदार पश्चाताप, सच्चा नामजप और गुरु की शरण से पापों का प्रभाव मिट सकता है।
4. क्या वैराग्य केवल संन्यासियों के लिए है?
नहीं, गृहस्थ भी वैराग्य अपना सकता है—जब वह भोगों में रहते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता।
5. मन को शांति क्यों नहीं मिलती?
क्योंकि मन इच्छाओं में उलझा रहता है। जब ध्यान भीतर केंद्रित होता है, तब शांति स्वाभाविक मिलती है।
जीवन का सार यही है—स्वयं को जानो, भगवान में दृढ़ रहो, और माया की चमक को पहचानकर भ्रम से मुक्त हो जाओ।
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Originally published on: 2023-11-01T15:33:09Z



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