संतों का कष्ट और परम आनंद का रहस्य

संतों का बाहरी कष्ट और आंतरिक आनंद

गुरुजी के वचन इस गूढ़ सत्य को प्रकट करते हैं कि संतों के जीवन में दिखाई देने वाला कष्ट वास्तव में उनके अंतर्मन के लिए कष्ट नहीं होता। बाहरी शरीर प्रारब्ध के अनुसार भोगता है, पर भीतर का आत्म स्वरूप परम सुख में स्थित रहता है। जब मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है, तब ज्वर, पीड़ा या असह्यता केवल देह की घटना बन जाती है—उसका स्पर्श आत्मा तक नहीं पहुंचता।

संतों के लिए कष्ट शब्द का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि वे सुख-दुख के परे आनंद के क्षेत्र में निवास करते हैं। वे हंसते हुए अपने प्रारब्ध को काट लेते हैं, क्योंकि उनका यह अंतिम जन्म होता है। इस देह के द्वारा पाप-पुण्य का शोधन होता है, ताकि आत्मा परम विश्रांति को प्राप्त करे।

प्रेरक कथा: माधवदास बाबा और भगवान की सेवा

गुरुजी ने एक अद्भुत कथा सुनाई। माधवदास बाबा को अत्यंत पीड़ा देने वाला रोग हो गया था। कई दिन से कमजोरी और असह्यता थी। एक दिन उन्होंने देखा कि पीतांबरधारी एक दिव्य किशोर समुद्र के जल से लंगोटी धो रहा है और स्वयं उनकी सेवा कर रहा है। जब बाबा ने पूछा, ‘प्रभु, आप स्वयं मेरी सेवा कर रहे हैं?’ तो भगवान बोले – ‘जिसका मेरे सिवा कोई नहीं होता, उसकी सेवा मैं स्वयं करता हूँ।’

बाबा भावविह्वल हो गए। उन्होंने कहा, ‘प्रभु, यदि आप मेरे प्रारब्ध को मिटा दें तो मैं मुक्त हो जाऊँ!’ भगवान मुस्कुराए – ‘नहीं, सिद्धांत का पालन करूँगा। तुम प्रारब्ध भोग लो, फिर मेरे धाम आ जाओगे।’

यह अद्भुत प्रसंग दिखाता है कि भगवान स्वयं भक्त के पास आते हैं, पर नियम और धर्म का पालन करते हुए ही कृपा करते हैं। प्रारब्ध मिटाना भगवान के हाथ में है, पर वो भक्त की साधना और भक्ति के योग से ही शुद्ध होते हैं।

कथा का नैतिक बोध

सच्चा भक्त वही है जो अपने दुख से भागता नहीं, उसे ईश्वरीय प्रसाद समझकर सह लेता है। भगवान हर पीड़ा में छिपे रहते हैं, पर केवल वही उन्हें देख सकता है जिसका मन उनसे जुड़ा है।

तीन व्यवहारिक अनुप्रयोग

  • जब कोई रोग या विपत्ति आए, तो उसे दंड नहीं वरदान समझें। यह हमारे भीतर की अपवित्रताओं को धोता है।
  • प्रत्येक पीड़ा के समय प्रभु स्मरण करें, “जो हुआ वह भगवान की कृपा से हुआ।” इससे मन स्थिर रहेगा।
  • दूसरों की विपत्ति देखकर करुणा रखें, उनका मनोबल बढ़ाएं। संतों की तरह हर स्थिति को सीखने का अवसर मानें।

कोमल चिंतन प्रोत्साहन

आज कुछ मिनट शांत बैठें और स्वयं से पूछें – “कौन-सी कठिनाई मुझे प्रभु से दूर कर रही है, और कौन-सी मुझे उनके और निकट ला रही है?” इस प्रश्न के साथ हृदय में भक्ति का दीपक जलाएं।

कष्ट का भाव और संत की दृष्टि

गुरुजी समझाते हैं कि साधारण मनुष्य सुख-दुख की लहरों में हिलता है, पर संत समान भाव रखते हैं। लाभ या हानि, जय या पराजय – सबको एक रस से देखने का अभ्यास ही आत्मबोध की ओर ले जाता है। जब आत्मा यह पहचान लेती है कि वह अमर है, तब किसी भौतिक पीड़ा का प्रभाव नहीं रह जाता।

जैसे औषधि के लेप से अंग सुन्न हो जाता है, वैसे ही भजन की साधना से मन सांसारिक चोटों से मुक्त हो जाता है। दैहिक पीड़ा होती है, पर व्यथा नहीं होती। यही संतों की तपस्या है; यही उनका आनंद।

भक्त और प्रारब्ध का संबंध

प्रारब्ध शरीर संबंधी कर्मों का परिणाम है। यह निपटने के बाद आत्मा मुक्त होती है। संतों के अतिरिक्त किसी को इतना गहन भोग नहीं दिखता, क्योंकि उनका यह अंतिम जन्म होता है। जब प्रभु स्वयं उनके कर्मों का लेखा-जोखा निपटा रहे होते हैं, तब उनका आंतरिक आनंद सर्वोच्च होता है। वे जानते हैं कि यह सब दैवी विधान है।

प्रभु से प्रार्थना का सही स्वरूप

गुरुजी कहते हैं कि भगवान से यह न माँगो कि हमारा दुख समाप्त हो जाए, बल्कि यह माँगो कि दुख में भी उनसे हमारा संबंध बना रहे। यह दृष्टि बदल देती है। विपत्तियाँ आनंददायक बन जाती हैं, क्योंकि वे आत्म-विकास की पथरी हैं।

इस भाव को जीवंत करने के लिए प्रतिदिन नामस्मरण करें – “राधा राधा”। यही नाम सब दिशाओं में मंगल फैलाता है। नाम का जप मन की अशुद्धियों का शोधन करता है और भक्ति को पुष्पित करता है।

आध्यात्मिक निष्कर्ष

जीवन के प्रत्येक कष्ट को भगवान की गोद मानें। जब मन प्रभु में स्थित हो जाए, तब पीड़ा भी प्रसाद बन जाती है। संतों का उदाहरण हमें इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। सच्चा आनंद देह और परिस्थिति में नहीं, बल्कि उस शीतल स्थल में है जहाँ ‘दुख स्पर्श नहीं कर सकता’।

यदि कभी मन व्याकुल हो तो दिव्य कथा और भजनों के माध्यम से अपनी आत्मा को पुनः जाग्रत करें। वहाँ आपको संतों, गुरुजनों और प्रभु के अमूल्य संगीतमय वचनों से सच्ची आध्यात्मिक अनुभूति मिलेगी।

सामान्य प्रश्नोत्तर (FAQ)

प्रश्न 1: क्या हर संत को शरीर की पीड़ा होती है?

हाँ, देह के नियम सब पर समान हैं; पर संत उसका अनुभव नहीं करते क्योंकि उनका मन प्रभु में स्थित होता है।

प्रश्न 2: क्या प्रारब्ध मिटाया जा सकता है?

भक्ति और निष्काम कर्म से प्रारब्ध शुद्ध होता है, पर संत इसे प्रसाद मानकर भोगते हैं।

प्रश्न 3: दुख के समय प्रभु को कैसे स्मरण करें?

गहरी साँस लेकर नाम जपें। मन को शांत कर कहें – “जो हुआ वह मेरे मंगल के लिए है।”

प्रश्न 4: क्या भजन से मानसिक शक्ति बढ़ती है?

निश्चित ही, नियमित भजन मन को स्थिर और प्रेममय बनाता है, जिससे विपत्ति भी शिक्षाप्रद लगती है।

प्रश्न 5: क्या प्रभु स्वयं सेवा करते हैं?

हाँ, जब हृदय पूर्णतः समर्पित होता है, तो भगवान स्वयं उसमें प्रकट होकर उसकी देखभाल करते हैं।

चिरस्थायी आध्यात्मिक संदेश

दुख कोई शाप नहीं, वह आत्मा को उज्ज्वल करने का स्वर्ण अवसर है। संतों की तरह, हमें भी हर विपत्ति को हँसते हुए स्वीकारना चाहिए और प्रभु की कृपा में स्थिर रहना चाहिए। यही जीवन का सच्चा परमानंद है।

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Originally published on: 2024-02-12T06:41:49Z

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