संतों का कष्ट और परमानंद का रहस्य
प्रस्तावना
कभी-कभी हम देखते हैं कि महान संत अपने जीवन में शारीरिक पीड़ा झेलते हैं। किडनी फेल, कैंसर या अन्य रोग—इन सब से वे शारीरिक रूप से प्रभावित प्रतीत होते हैं। लेकिन क्या वे वास्तव में दुखी होते हैं? नहीं, यह मात्र बाहरी दृष्टि है। उनके हृदय में तो उसी क्षण भगवान का परमानंद, दिव्य स्पंदन और अखंड आनंद व्याप्त रहता है।
देह और आत्मा का भेद
संत समझते हैं कि यह देह पाँच भौतिक तत्वों से बनी एक अस्थायी संरचना है। इसका नाश होना निश्चित है। जब तक आत्मबोध नहीं होता, देह का उपयोग साधना और सेवा में होता है। संतों का ध्यान देह में नहीं, बल्कि देह के पार स्थित आत्म-स्थित चैतन्य में होता है।
- देह को वे साधना का उपकरण मानते हैं।
- आत्मा को वे परम सत्य मानते हैं।
- जब आत्माभास स्थिर हो जाता है, तब देह की पीड़ा उन्हें स्पर्श नहीं करती।
संतों का कष्ट – क्यों और कैसे?
संतों का अंतिम जन्म होता है। वे अपने पूर्व कर्मों का शुद्धिकरण हँसते-हँसते करते हैं। यह उनका ‘फाइनल अकाउंट’ होता है। साधारण जन को यह कष्ट दिखाई देता है, पर संतों के लिए यह भगवद् कृपा का प्रतीक होता है।
उनका दुःख देखने वाला सोचता है कि वे पीड़ित हैं, पर वे तो भीतर से ब्रह्मानंद में स्थित हैं। वही स्थान है जहां कोई भी दुःख स्पर्श नहीं कर सकता।
भागवत दृष्टि बनाम सांसारिक दृष्टि
जब कोई व्यक्ति प्रकृति की दृष्टि से देखता है, तो कष्ट या सुख का अनुभव करता है। मगर संत ‘भागवत नेत्रों’ से देखते हैं। उनके लिए हर परिस्थिति भगवत लीलामय हो जाती है। रामकृष्ण परमहंस या माधवदास बाबा जैसे महापुरुषों ने उसी स्थिति को जीया। भगवान स्वयं उनके प्रारब्ध को सँभालते हैं और उन्हें अपने धाम की ओर बुलाते हैं।
दिव्य औषधि – भजन और स्मरण
भजन और स्मरण ऐसी दिव्य औषधि हैं जो मन और इंद्रियों को प्रभु में स्थिर कर देती हैं। जब मन प्रभु में लग जाता है, तब रोग, पीड़ा या भय का कोई प्रभाव नहीं रहता। यह सच है—मन प्रभु में हो जाए तो सबसे बड़ी पीड़ा भी आनंद में बदल जाती है।
ऐसी अवस्थाओं में संत मुस्कुराते हैं, सत्संग करते हैं और परमात्मा की महिमा का अनुभव कराते हैं। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि यह क्षमता बिना साधना और भजन के नहीं आती।
संतों की दृष्टि में दुःख
संतों का एकमात्र ‘कष्ट’ यह होता है कि मनुष्य अपने दिव्य जीवन को विषयों में नष्ट कर देता है। वह भगवान को पाने का अवसर खो देता है। संतो को अपने शरीर का दुःख नहीं होता; उन्हें केवल अपने भक्तों के भ्रम का दुःख होता है।
कर्म का नियम और संतों की मुक्ति
कर्मों का बंधन बड़ा गूढ़ होता है। भगवान ने स्वयं कहा कि कर्मों का हिसाब चुकाना पड़ता है। दशरथ जी, बाली जी और स्वयं श्रीकृष्ण तक ने अपने कर्मों के फल को स्वीकार किया। यही दिव्य विधान है।
संत अपने कर्मों को सहज भाव से भोगते हैं ताकि आवागमन का चक्र समाप्त हो। वे हँसते हुए इस सबको स्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है—अब हमारे धाम का द्वार निकट है।
दुःख से भागना नहीं, उसे रूपांतरित करना
भक्ति का सार यही है कि हम दुःख से नहीं भागते, बल्कि उसमें भी भगवान का स्मरण करते हैं। जब हम प्रार्थना करते हैं कि ‘दुःख मिटा दो’, तब हम भागते हैं। लेकिन जब हम कहते हैं ‘दुःख सहने की शक्ति दो’, तब हम ऊपर उठते हैं।
प्रभु से यही प्रार्थना करें—“हे भगवान, जो भी मेरे मंगल में हो वही करें। दुःख दें, तो सहने की शक्ति दें, पर मुझे आपसे दूर न करें।” तब हर विपत्ति आनंददायक बन जाती है।
दैनिक साधन और नाम का महात्म्य
राधा नाम का स्मरण दिशाओं का मंगल करता है। चाहे हम देश में हों या विदेश में, राधा राधा का नाम जीवनी शक्ति बन जाता है। यह नाम आत्मा को प्रमुदित करता है और मन को शांत करता है।
ऐसे भजनों की अनुभूति और divine music के सत्संग से हृदय जाग्रत होता है, और जीवन भगवत स्पर्श से भर जाता है।
संदेश – आज का ‘संदेश’
संदेश: दुःख शरीर को छूता है, आत्मा को नहीं। जब मन प्रभु में स्थिर हो जाता है, तब हर कष्ट परमानंद बन जाता है।
श्लोक (परिवर्तित अर्थ)
“शस्त्र आत्मा को नहीं छू सकता, अग्नि उसे नहीं जला सकती, जल उसे नहीं भिगो सकता, वायु उसे नहीं सुखा सकती।” – यही आत्मा की शक्ति है।
आज के तीन अभ्यास
- कष्ट या विपत्ति में ‘राधा राधा’ का नाम लेकर मुस्कुराएँ।
- किसी रोगी या दुःखी व्यक्ति को हिम्मत का शब्द दें।
- रात को सोने से पहले अपने जीवन की तीन कृपाएँ गिनें और धन्यवाद दें।
मिथक स्पष्टिकरण
गलत धारणा: संत रोग के पीड़ित होते हैं।
सत्य: संतों में आत्मबोध इतना दृढ़ होता है कि शारीरिक रोग उन्हें केवल बाहरी रूप में छूता है; भीतर वे दिव्य आनंद में डूबे रहते हैं।
समापन
जीवन का सार यही है—जब मन प्रभु में लग जाए, तब कोई समस्या रह नहीं जाती। दुःख हो या सुख, सब समान हो जाते हैं। संतों की यह दृष्टि हमें प्रेरित करती है कि हम भी अपने जीवन में परमात्मा की छाया में आनंद अनुभव करें। याद रखिए, हर विपत्ति में एक छिपा हुआ वरदान होता है—प्रभु के और समीप आने का अवसर।
FAQs
१. क्या संत वास्तव में दर्द महसूस नहीं करते?
वे शारीरिक पीड़ा जानते हैं, पर उसका भावनात्मक प्रभाव उनके मन पर नहीं होता क्योंकि उनका मन भगवान में स्थित होता है।
२. क्या हम भी ऐसी अवस्था पा सकते हैं?
हाँ, नियमित भजन, नाम जप और सत्संग से धीरे-धीरे मन स्थिर होकर विशुद्ध आनंद का अनुभव करता है।
३. क्या कष्ट भगवान की कृपा है?
कष्ट अनुभव कराने नहीं, बल्कि हमें आत्मशुद्धि कराने भेजे जाते हैं। उनमें छिपा संदेश है कि हम भीतर से जागें।
४. क्या कर्मों को भजन से मिटाया जा सकता है?
भजन कर्मों को रूपांतरित करता है, उनका दंश कम करता है और मन को उन्नत करता है। पूर्ण निष्काम साधना कर्मबंधन से मुक्ति दिलाती है।
५. क्या हर व्यक्ति भगवत स्थिति पा सकता है?
हाँ, हर आत्मा में वही दिव्यता छिपी है। बस विश्वास, भक्ति और निरंतर स्मरण की आवश्यकता है।
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Originally published on: 2024-02-12T06:41:49Z



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