भगवान की इच्छा में समर्पण का रहस्य
परिचय
जीवन में सबसे बड़ी उलझन तब आती है जब मनुष्य अपने कर्मों और उनके फल को समझ नहीं पाता। गुरुजी के उपदेश में स्पष्ट संदेश है – जब तक मन और अहंकार जीवित हैं, तब तक कर्म का भोग अनिवार्य है। और जब यह अहंता भगवान को समर्पित हो जाती है, तब जीवन मुक्त हो जाता है।
भगवान की इच्छा और मनुष्य की इच्छा
विश्व में जो कुछ भी होता है, वह उसी की इच्छा से होता है। परंतु मनुष्य के अनुभवों का फल इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपनी इच्छा से कर्म कर रहा है या भगवान की इच्छा में चल रहा है।
- यदि आप अपनी इच्छा से कार्य करते हैं, तो उसके परिणामों का भोग भी आपको करना होगा।
- यदि आप भगवान की इच्छा में समर्पित होकर कार्य करते हैं, तो कर्म का बंधन समाप्त होने लगता है।
- कर्तापन का त्याग ही मुक्ति का प्रथम चरण है।
मुक्ति का मार्ग
गुरुजी कहते हैं कि पहले पुण्य कर्मों को अपनाओ ताकि पाप कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जाए। फिर पुण्य कर्मों में भी ‘मैं कर रहा हूँ’ का भाव छोड़ दो। जब कर्ता भाव समाप्त हो जाता है, तब नाम जप के माध्यम से भगवान की प्राप्ति सहज हो जाती है।
तीन सरल अभ्यास
- हर कार्य से पहले मन में कहो – “मैं यह कार्य भगवत् इच्छा से कर रहा हूँ।”
- दिन में कुछ समय प्रभु के नाम का ध्यान करो।
- अपनी हर सफलता और असफलता को एक समान भाव से स्वीकार करो।
जीवन का सत्य
गुरुजी समझाते हैं कि जब कोई पत्ता भी उसकी सत्ता के बिना नहीं हिलता, तब चाहे नरक का अस्तित्व हो, चाहे रोग, चाहे दंड – सभी उसी परम सत्ता से संचालित हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान दोषी हैं, बल्कि यह कि सब कुछ उसकी योजना का हिस्सा है जो हमारी आत्मा के विकास के लिए आवश्यक है।
संदेश का सार
संदेश: अपनी इच्छा और पहचान को भगवान को समर्पित कर दो – यही जीवन की सच्ची स्वतंत्रता है। जब मन का केंद्र भगवान बन जाता है, तो कर्म के बंधन से मुक्ति स्वतः ही मिलती है।
श्लोक (परिवर्तित):
“जिसका मन समर्पित होकर भगवान में स्थिर हो गया, उसके लिए न पाप है, न पुण्य – केवल परम शांति है।”
आज के तीन कर्म
- अपने हर संकल्प से पहले प्रभु का स्मरण करो।
- किसी के प्रति दुर्भावना को त्याग कर प्रेम से व्यवहार करो।
- शाम को कुछ क्षण अपने भीतर झाँककर देखो कि आज तुम्हारे कितने कार्य भगवान की इच्छा से हुए।
भ्रम का निवारण (Myth Busting)
कई लोग मानते हैं कि यदि सब भगवान की इच्छा से हो रहा है, तो हमें प्रयास ही क्यों करना चाहिए। यह भ्रम है। भगवान की इच्छा जानने का मार्ग ही हमारा प्रयास है। जब हम अपने कर्म को शुद्ध करते हैं, तो उसी प्रक्रिया में वह दिव्य इच्छा हमारे भीतर प्रकट होती है।
आध्यात्मिक सहचरिता
जो साधक इस समर्पण के मार्ग में चलना चाहते हैं, वे spiritual guidance और श्री प्रेमानंद महाराज के उपदेशों के माध्यम से अपने साधना मार्ग को दृढ़ कर सकते हैं। यह यात्रा धीमी लेकिन अत्यंत शांति देने वाली होती है।
FAQs
Q1. क्या भगवान की इच्छा में चलने का मतलब प्रयास छोड़ देना है?
नहीं, इसका अर्थ अपने कर्म में अहंकार छोड़कर प्रभु की प्रेरणा से काम करना है।
Q2. क्या कर्म से पूरी तरह मुक्त होना संभव है?
जब कर्तापन और अहंकार समाप्त हो जाते हैं, तब केवल प्रभु की सत्ता रहती है – उसी अवस्था को जीवन-मुक्ति कहते हैं।
Q3. क्या पुण्य कर्म भी हमें बाँधते हैं?
हाँ, यदि उनमें कर्ता भाव है। जब हम उन्हें निःस्वार्थ भाव से करते हैं, तब वे मुक्ति का साधन बन जाते हैं।
Q4. क्या रोग और विपत्ति भी भगवान की इच्छा हैं?
हाँ, वे आत्मा के विकास के साधन हैं, दंड नहीं। उन्हें स्वीकार करना ही समर्पण का भाग है।
Q5. भगवान की इच्छा को समझने का सबसे सरल उपाय क्या है?
संयमित मन, सतत नामजप और शुद्ध सेवा। यही ईश्वरीय प्रेरणा से जुड़ने का मार्ग है।
Watch on YouTube: https://www.youtube.com/watch?v=gelqulwjBdA
For more information or related content, visit: https://www.youtube.com/watch?v=gelqulwjBdA
Originally published on: 2025-01-15T10:08:58Z



Post Comment